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क्या पूर्ण बहुमत के आने से खत्म होगी क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता?

जागरण जंक्शन फोरम
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समय अपने आप को दोहराता है। तीस साल पहले (1984) मां इंदिरा गांधी की अचानक हुई मौत से उपजे सहानुभूति के सैलाब ने राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 417 सीटें दिला दी थीं, जिसके बाद कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाई। आज भाजपा ने भी अपने नेता मोदी की लहर का फायदा उठाते हुए वह पुराना समय एक बार फिर दोहरा दिया है। कांग्रेस के बाद भाजपा, तीस साल के लंबे अंतराल के बाद लोकसभा में अपने बूते पूर्ण बहुमत पाने वाली पहली पार्टी बनी है।


क्षेत्रीय दलों का विरोध करने वाले मानते हैं कि:

इससे पहले भी सरकारें बनती थीं लेकिन क्षेत्रीय दलों के समर्थन पर। पूर्ण बहुमत न होने की वजह से राष्ट्रीय पार्टियों को किसी भी तरह की सरकार को चलाने के लिए इन क्षेत्रीय दलों के आगे हाथ फैलाना पड़ता था। जिनके एवज में ये क्षेत्रीय पार्टियां अपने शर्तों पर इन्हें समर्थन देती थी। धीरे-धीरे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों को जोड़कर गठबंधन (यूपीए और एनडीए) का निर्माण किया गया। उसी समय से सरकार पार्टी की बजाय गठबंधन के नाम से पहचानी जाने लगी। उधर क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग से थर्ड फ्रंट के नाम से एक और गठबंधन अस्तित्व में आ चुका था जो अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय पार्टियों से अलग हटकर सरकार बनाने के सपने देखने लगा था।


लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में एक बार फिर राष्ट्रीय पार्टी को मिले भारी बहुमत के बाद क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है। नतीजों में साफ दिखाई दे रहा है कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक क्षेत्रीय पार्टियां जनता में विश्वास कायम रखने में नाकाम रही हैं। आरजेडी, जदयू, बसपा, सपा और डीएमके आदि जैसी बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां आज अपना वजूद खोज रही हैं। जनता समझ चुकी है कि इन क्षेत्रीय पार्टियों का मकसद सरकार को अस्थिर कर अपने हित साधना है। जिस जाति आधारित राजनीति से इन्होंने जनता को अब तक बेवकूफ बनाया है जनता ने इस चुनाव में उन्हें सबक सिखाया है। आगे भी चुनाव में जनता इन्हें सिरे से नकार देगी।


क्षेत्रीय दलों के समर्थन में तर्क:

दूसरी ओर एक पक्ष ऐसा भी है जो इन सब बातों से इत्तेफाक नहीं रखता। उनका मानना है कि एक दौर आता है जब एक व्यक्ति के जीवन में कठिनाई आती है इसका मतलब यह तो नहीं कि वह व्यक्ति पूरी जिंदगी भर के लिए असफल हो गया। पार्टियों के साथ भी ऐसा है। अभी जनता ने उनके खिलाफ जनादेश दिया है लेकिन एक वक्त आएगा जब जनता राष्ट्रीय पार्टी वाली वर्तमान सरकार से ऊबकर क्षेत्रीय पार्टी की ओर रुख करेगी। हार-जीत तो जीवन की सच्चाई है इसे कौन नकार सकता है। इस समय भले ही मोदी की लहर चल रही है लेकिन कुछ समय बाद किसी और क्षेत्रीय नेता की चलेगी।


उपरोक्त मुद्दे के दोनों पक्षों पर गौर करने के बाद निम्नलिखित प्रश्न हमारे सामने हैं जिनका जवाब ढूंढ़ना नितांत आवश्यक है, जैसे:


1. क्या क्षेत्रीय दलों का दौर समाप्त हो चुका है?

2. क्या जाति आधारित राजनीति ही मुख्य वजह है क्षेत्रीय दलों के हार की?

3. क्या देश में केवल दो (भाजपा और कांग्रेस) ही पार्टियां रह जाएंगी?

4. क्या मोदी के रहते क्षेत्रीय दल जनता के बीच जाकर राजनीति साध सकेंगे?

5. क्या पूर्ण बहुमत के आने से खत्म होगी क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता?


जागरण जंक्शन इस बार के फोरम में अपने पाठकों से इस बेहद महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दे पर विचार रखे जाने की अपेक्षा करता है। इस बार का मुद्दा है:


क्या पूर्ण बहुमत के आने से खत्म होगी क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता?


आप उपरोक्त मुद्दे पर अपने विचार स्वतंत्र ब्लॉग या टिप्पणी लिख कर जाहिर कर सकते हैं।


नोट: 1. यदि आप उपरोक्त मुद्दे पर अपना ब्लॉग लिख रहे हैं तो कृपया शीर्षक में अंग्रेजी में “Jagran Junction Forum” अवश्य लिखें। उदाहरण के तौर पर यदि आपका शीर्षक “क्षेत्रीय दलों का दौर समाप्त” है तो इसे प्रकाशित करने के पूर्व “क्षेत्रीय दलों का दौर समाप्त” – Jagran Junction Forum लिख कर जारी कर सकते हैं।


2. पाठकों की सुविधा केलिए Junction Forum नामक कैटगरी भी सृजित की गई है। आप प्रकाशित करने के पूर्व इस कैटगरी का भी चयन कर सकते हैं।


3. अगर आपने संबंधित विषय पर अपना कोई आलेख मंच पर प्रकाशित किया है तो उसका लिंक कमेंट के जरिए यहां इसी ब्लॉग के नीचे अवश्य प्रकाशित करें, ताकि अन्य पाठक भी आपके विचारों से रूबरू हो सकें।


धन्यवाद

जागरण जंक्शन परिवार


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