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पिछले कुछ महीनों में लिव-इन संबंधों को शादीशुदा स्त्री-पुरुष संबधों की तरह मान्यता देने के लिए सबसे बड़ी न्यायिक ईकाई सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कई टिप्पणियां दी हैं। कुछ महीने पहले लिव-इन संबंधों में बच्चे होने की स्थिति में इसे शादीशुदा संबंधों के समानांतर मानने की टिप्पणी के बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक और टिप्पणी दी है। न्यायमूर्ति के. एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता की पीठ का कहना है “लिव-इन संबंध न कोई अपराध हैं, न पाप और संसद को ऐसे संबंधों को ‘वैवाहिक संबंधों की प्रकृति‘ में लाने के लिए कानून बनाने चाहिए।“ दो लोगों के बीच का निहायत निजी मामला बताते हुए सुप्रीम कोर्ट बदलते वक्त के साथ लिव-इन संबंधों के बढ़ते मामलों में महिलाओं और इन संबंधों से पैदा हुए बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए इस पर कानून बनना जरूरी मानता है और संसद को इसे कानून के दायरे में लाने की सलाह देता है।
सुप्रीम कोर्ट की राय से सहमति रखने वाले लोगों का मानना है कि लिव इन संबंध बदलते आर्थिक-सामाजिक परिवेश की जरूरत बन चुके हैं। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में यह दो लोगों के लिए न केवल आर्थिक सामंजस्य का मसला बन चुका है बल्कि यह भावनात्मक व सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करता है। इससे सहमति रखने वाले लोगों का मानना है कि सरकार को अविलंब ऐसे संबंधों में शामिल महिलाओं तथा फलस्वरूप उत्पन्न बच्चों की हिफ़ाजत का कानून बनाना चाहिए ताकि भविष्य में कोई भी पुरुष ऐसे मामलों में अपनी जिम्मेदारी से न बच सके।
इसके ठीक विपरीत सुप्रीम कोर्ट की राय से असहमति रखने वालों तथा परंपरा के समर्थकों का मानना है कि वस्तुत: सामाजिक दिशा में ऐसे संबंधों की रूपरेखा भारतीय समाज की मान्यताओं और सामाजिक धारा के खिलाफ जाती है। शादी पूर्व सेक्स-संबंध तो दूर, प्रेम संबंध भी यहां पूर्ण रूप से मान्य नहीं हैं। हमारी मान्यताओं में शादी जैसा संबंध दो लोगों का निजी मसला न होकर एक पारिवारिक और सामाजिक मामला है। यहां शादी सिर्फ दो लोगों का जुड़ाव नहीं बल्कि विवाह में दो लोगों के साथ दो परिवारों का जुड़ाव होता है। शादी के बंधन में बंधे इन दो लोगों के बनते-बिगड़ते संबंधों के साथ यह इन दो परिवारों के बनते-बिगड़ते संबंधों का मसला भी बन जाता है। इस तरह यह एक निहायती निजी मसला न रहकर एक पारिवारिक और सामाजिक मसला बन जाता है। अत: लिव-इन संबंधों को मान्यता मिलने के कारण ऐसे संबंधों के बढ़ने के साथ ही भारतीय परंपरा में विवाह-संस्था के निहित मूल्यों का ह्रास हो सकता है। यह सामाजिक रूप से अहितहारी होने के साथ ही निजी तौर भी इसमें लिप्त उन दो लोगों को भावनात्मक रूप से कमजोर ही करेगा।
उपरोक्त मुद्दे के दोनों पक्षों पर गौर करने के बाद निम्नलिखित प्रश्न हमारे सामने आते हैं जिनका जवाब ढूंढ़ना नितांत आवश्यक है, जैसे:
1.क्या लिव-इन संबंध भारतीय सामाजिक दायरे में मान्य हो सकते हैं?
2.उदारीकृत आर्थिक परिवेश में लिव इन संबंध एक जरूरत बन चुका है तो क्या अब समाज के भी उदार होने का वक्त आ चुका है?
3.क्या लिव-इन संबंधों को कानूनी मान्यता देना विवाह-संस्था के मूल्यों का अपमान नहीं होगा?
4. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कई देश अब लिव-इन संबंधों को मान्यता देने लगे हैं और बदलते वक्त में महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए यह जरूरी है। लेकिन कानूनी मान्यता जरूरी नहीं कि सामाजिक मान्यता भी दिला दे। ऐसे में क्या कानून बनाने भर से ऐसे संबंधों में शामिल महिलाओं और इससे जुड़े बच्चों को उनके अधिकार वास्तव में प्राप्त हो जाएंगे?
जागरण जंक्शन इस बार के फोरम में अपने पाठकों से इस बेहद महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दे पर विचार रखे जाने की अपेक्षा करता है। इस बार का मुद्दा है:
क्या लिव-इन संबंध भारतीय समाज में मान्य हो सकता है?
आप उपरोक्त मुद्दे पर अपने विचार स्वतंत्र ब्लॉग या टिप्पणी लिख कर जाहिर कर सकते हैं।
नोट:1. यदि आप उपरोक्त मुद्दे पर अपना ब्लॉग लिख रहे हैं तो कृपया शीर्षक में अंग्रेजी में “Jagran Junction Forum” अवश्य लिखें। उदाहरण के तौर पर यदि आपका शीर्षक “लिव-इन संबंध” है तो इसे प्रकाशित करने के पूर्व लिव-इन संबंध – Jagran Junction Forum लिख कर जारी कर सकते हैं।
2. पाठकों की सुविधा के लिए Junction Forum नामक कैटगरी भी सृजित की गई है। आप प्रकाशित करने के पूर्व इस कैटगरी का भी चयन कर सकते हैं।
धन्यवाद
जागरण जंक्शन परिवार
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