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माता-पिता अकसर अपनी बेटियों को पराया धन या किसी दूसरे की अमानत जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं। लेकिन जब विवाह के पश्चात बेटी अपने ससुराल चली जाती है तो वहां भी उसे स्वीकार करने वाला कोई नहीं होता क्योंकि वहां उसे दूसरे घर से आई हुई लड़की ही समझा जाता है। जीवन में एक बार ऐसी परिस्थितियों का सामना हर लड़की को करना पड़ता है। वह चाहे कितनी ही आत्मनिर्भर क्यों ना हो लेकिन परिवार के भीतर उसे हर समय अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वह ताउम्र कभी इस प्रश्न का उत्तर नहीं ढूंढ़ पाती कि जिन माता-पिता ने उसे जन्म दिया वह उनके लिए ही अपनी नहीं है तो उसका अपना घर और परिवार कौन सा है?
नारीवादियों का यह कहना है कि चाहे हम खुद को कितना ही उदार क्यों ना दर्शाने लगें लेकिन हकीकत हमेशा से यही है कि भारतीय परिवारों में बेटे के जन्म को ही महत्व दिया जाता है। पिता के घर में रहते हुए भी बेटी कभी उस आजादी या अपनेपन को महसूस नहीं कर पाती जो उसी घर में उसके भाई को मिलता है। माता-पिता अपनी ही बेटी को अपना समझने की कोशिश नहीं करते। वह यही सोचते हैं कि एक ना एक दिन तो बेटी का विवाह हो जाएगा और वह दूसरे के घर चली जाएगी। शिक्षा के क्षेत्र में भले ही महिलाएं उन्नति कर रही हों लेकिन आज भी उनका अपना परिवार उनकी अपेक्षाओं और इच्छाओं की ओर ध्यान नहीं देता। विवाह से पहले उन्हें अपने ही घर में पराया होने का अहसास करवाया जाता है। वहीं पिता के घर से विदा होकर जब वह पति के घर में जाती है तो उसकी हर छोटी गलती पर दूसरे घर की लड़की होने का ताना दिया जाता है और उसकी हर कमी के लिए उसके माता-पिता को दोषी ठहराया जाता है।
वहीं दूसरी ओर इस विचारधारा से हटकर सोचने वाले बहुत से लोगों का मानना है कि सामाजिक परंपरा और संस्कारों की निरंतरता के कारण बेटा और बेटी में भेदभाव ध्वनित होता है, जिसे मात्र एक अपवाद के रूप में ही देखना चाहिए। अधिकांश मामलों का सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तौर पर विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षणिक क्रोधावेश में अभिव्यक्त की गई भावनाओं ने ही तमाम लोगों को यह महसूस करवया है कि परिवारों में स्त्रियों के साथ परायों जैसा व्यवहार किया जाता है और उन्हें अपना नहीं समझा जाता। यही वजह है कि नारीवादियों के कथित आरोपों की पुष्टि करना असंभव हो गया है। हकीकत यह है कि विवाह से पहले या विवाह के पश्चात उन्हें किसी भी रूप में पराया नहीं समझा जाता। ना कभी उनके पिता उन्हें पराया समझते हैं और ना ही पति या ससुराल वाले उसे अपनाने में कोताही बरतते हैं। उसे घर का एक महत्वपूर्ण सदस्य मानकर सभी अधिकार दिए जाते हैं और यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने कर्तव्यों को भी बखूबी निभाएगी।
महिलाओं के पारिवारिक हालातों पर चर्चा करने के बाद कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने आते हैं, जिनका जवाब ढूंढ़ना नितांत आवश्यक है, जैसे:
1. क्या नारीवादियों का यह कहना कि महिलाओं को पिता और पति, दोनों ही घरों में पराया समझा जाता है, सही है?
2. क्या शिक्षित और आत्मनिर्भर बनने के बाद महिलाओं के पारिवारिक हालातों में कुछ बदलाव आया है?
3. वर्तमान हालातों के मद्देनजर क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि अब बेटियों के विषय में अभिभावकों की मानसिकता में परिमार्जन हुआ है?
जागरण जंक्शन इस बार के फोरम में अपने पाठकों से इस बेहद महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दे पर विचार रखे जाने की अपेक्षा करता है। इस बार का मुद्दा है:
क्या बेटियां पराई होती है?
आप उपरोक्त मुद्दे पर अपने विचार स्वतंत्र ब्लॉग या टिप्पणी लिख कर जाहिर कर सकते हैं।
नोट: 1. यदि आप उपरोक्त मुद्दे पर अपना ब्लॉग लिख रहे हों तो कृपया शीर्षक में अंग्रेजी में “Jagran Junction Forum” अवश्य लिखें। उदाहरण के तौर पर यदि आपका शीर्षक “पराई बेटियां” है तो इसे प्रकाशित करने के पूर्व पराई बेटियां – Jagran Junction Forum लिख कर जारी करें।
2. पाठकों की सुविधा के लिए Junction Forum नामक कैटगरी भी सृजित की गई है। आप प्रकाशित करने के पूर्व इस कैटगरी का भी चयन कर सकते हैं।
धन्यवाद
जागरण जंक्शन परिवार
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