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राजनीति में जातिवाद का दखल वैसे तो कोई नई बात नहीं है और प्रायः सभी दल पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपने-अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए इस सशक्त हथियार का इस्तेमाल करते रहे हैं। किंतु फरवरी-मार्च 2012 में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर एक बार फिर से जाति का मुद्दा अपने चरम पर है। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल सहित सभी छोटी-बड़ी पार्टियां अपने-अपने जातीय समीकरण दुरूस्त कर रही हैं। लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर कोई भी दल ये स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर रहा है कि उसने ऐसा अपना वोट बैंक बढ़ाने की खातिर किया है बल्कि सभी का ये कहना है कि उन्होंने केवल समाज के सभी समुदायों/वर्गों के उचित प्रतिनिधित्व का ख्याल रखा है ताकि कोई भी उपेक्षित ना रह जाए।
चुनाव व राजनीति में जाति के दखल की उपयुक्तता और औचित्य पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। इस बार भी इस मुद्दे पर पक्ष व विपक्ष में अनेक बातें कही जा रही हैं। कुछ बुद्धिजीवी व राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों का कहना है कि चुनावों में जाति के आधार पर टिकटों का बंटवारा करने से समाज में संतुलन कायम होता है। ये एक प्रकार की सोशल इंजीनियरिंग है जिससे असमानता की खाई को पाटने में सहायता मिलती है।
वहीं दूसरी ओर चुनावों में जातिवाद के प्रयोग की भारी निंदा करने वाला पक्ष भी मौजूद है। चुनाव में जातिगत आधार पर निर्णय लेने के विरोधियों का मानना है कि ऐसा करना देश की सामाजिक समरसता के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। जातिवाद के कारण देश में विघटन और परिणामस्वरूप गृहयुद्ध की संभावना पैदा होती है। इनका मानना है कि यदि चुनाव के दौरान जातिगत आधार पर फैसले लिए जाएंगे तो अयोग्य उम्मीदवारों के चयन की आशंका बढ़ जाती है। केवल जातीय प्रमुखों, बाहुबलियों के चुन कर आने की प्रत्याशा होती है जो अंतिम रूप से किसी के भी हित में नहीं होता है। जातीय आधार पर निर्वाचित सदस्य केवल इस आधार पर अपनी पार्टी को ब्लैकमेल करने की स्थिति में होते हैं कि उनके पास अमुक जाति के मतों की लामबंदी है।
उपरोक्त आधार पर कुछ ऐसे जरूरी सवाल उत्पन्न होते हैं जिन पर चर्चा किया जाना बेहद आवश्यक है, जैसे:
1. क्या राजनैतिक दल सामाजिक समानता और समरसता में वृद्धि के लिए टिकट बंटवारे के समय जातीय गणित का ध्यान रखते हैं?
2. क्या राजनीति में जातीय आधार पर फैसले लेने से असमानता की खाई पाटी जा सकती है?
3. क्या जातीय आधार पर टिकट वितरण से अयोग्य लोगों के चुने जाने की संभावना बढ़ जाती है?
4. राजनीति में जातिवाद की प्रासंगिकता कितनी है?
5. क्या इससे देश में विभेदकारी परिस्थितियां जन्म लेती हैं?
जागरण जंक्शन इस बार के फोरम मेंअपने पाठकों से इस बेहद महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दे पर विचार रखे जाने की अपेक्षा करता है। इस बार का मुद्दा है:
कितना प्रासंगिक है राजनीति में जातिवाद?
आप उपरोक्त मुद्दे पर अपने विचार स्वतंत्र ब्लॉग या टिप्पणी लिख कर जाहिर कर सकते हैं।
नोट: 1.यदि आप उपरोक्त मुद्दे पर अपना ब्लॉग लिख रहे हों तो कृपया शीर्षक में अंग्रेजी में “Jagran Junction Forum” अवश्य लिखें। उदाहरण के तौर पर यदि आपका शीर्षक “राजनीति में जातिवाद” है तो इसे प्रकाशित करने के पूर्व राजनीति में जातिवाद – Jagran JunctionForum लिख कर जारी करें।
2.पाठकों की सुविधा के लिए Junction Forum नामक नयी कैटगरी भी सृजित की गई है। आप प्रकाशित करने के पूर्व इस कैटगरी का भी चयन कर सकते हैं।
धन्यवाद
जागरण जंक्शन परिवार
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